जब भी तुम
उंगली उठाकर
लगाते हो दोष
मुझ पर
तुम्हारी
मुड़ी हुई उंगलियां
करती हैं इशारा
तुम्हारी ओर
कि.... तीन गुना
कलुष भरा है
तुम्हारे अंदर
मुझसे ज्यादा॥
जीवन का अज्ञान भी तुम
हर ज्ञानी का ज्ञान भी तुम
एक किरण देकर अपनी
करते तम का नाश भी तुम ॥
जीवन की बगिया हो
तुमबगिया के माली भी तुम
पावन जल से कर सिंचित
खूब बढ़ाते रहते तुम॥
पुरु रवा की व्यथा से साभार प्राप्त रचना
कटि-केहरि, उच्छ्रंखलता का देती परिचय,
घूम रही पृथ्वी पर, होकर कैसी निर्भय ?
मधुर-मधुर मुस्कान, फड़कते होठ निरंत्तर,
भ्रमण कर रही रति, मानो इस जगतीतल पर।
शैल नितम्बी अलसाये डग, पगपग बढ़ती,
या कि भुवन चौदह की, शोभा भव्य, सिमटती॥
जो मीठी गज़लें कहते हैं।
हम उनके दिल में रहते हैं॥
दूर देश में तडपे कोई]
हम भी तो आहें भरते हैं।
लोग हमें लांछित करते]
हमघावों पर मरहम भरते हैं॥
सुख सुविधा से मोह न हमको]
जन्म जन्म पीडा वरते हैं॥
जगत हमारी निन्दा करता।
हम जग को रसमय करते हैं॥
विरह वेदना आहें आंसू]
कितनी दौलत हम रखते हैं।
जगत कहे दीवाना हम तो]
भाव समाधी में रहते हैं।
कैसा मिलना और बिछुडना\
हम तो बस क्रीडा करते हैं॥
कर्णफूल श्रवणों में, मकराकृति विशाल थे,
मनुज, सुरों हित फैले, मानो मोहजाल थे।
मस्तक मणियों खचित, रत्नमाला से शोभित,
टीका अति शोभायमान, छवि मधुर अपरिमित॥
प्रस्तुति : ॐ प्रकाश विकल
जीवन का अज्ञान- भी तुम
हर ज्ञानी ज्ञान भी तुम
एक किरण देकर अपनी
करते तम् का नाश भी तुम।
जीवन की बगिया हो तुम
बगिया के माली भी तुम
पावन जल से कर सिंचित
खूब बढाते रहते तुम।
जीवन की कश्ती हो तुम
कश्ती की पतवार भी तुम।
अश्रयहीन का बन संबल
पहुंचाते मंजिल पर तुम॥
जीवन की मस्ती हो तुम
मस्ती की बस्ती भी तुम।
भरकर हर प्राणी में नेह
बनते दिल की धड़कन तुम॥
ईश का रूप
मानवीय स्वरूप
चिन्तन-रूप ।
दुःखों का मूल
संसार से आशक्ति
आसक्ति ? त्याज्य ।
चीर हरण
सहज मोह भंग
प्रभु से पर्दा ?
अज्ञान नाश
शब्दों से न सत्य से
सत्य ? प्रकाश ।
हे सागर
तुम्हीं से उत्पन्न
एक लहर हूँ
तुम्हीं में विलीन
तुम्हीं में तल्लीन
चाहो तुम
दे सकते हो
एक पहचान
अन्यथा
मिटा दो
मेरा अस्तित्व
यह निर्भर
तुम्हारे ऊपर.
मेरा पहला हिन्दी ब्लॉग
इस पर प्रकाशित होंगी
मेरे ह्रदय से निकालने वाली
भावोक्तियाँ
पाठक करेंगे
उन भावों का
मूल्यांकन