पुरु रवा की व्यथा से साभार प्राप्त रचना
कटि-केहरि, उच्छ्रंखलता का देती परिचय,
घूम रही पृथ्वी पर, होकर कैसी निर्भय ?
मधुर-मधुर मुस्कान, फड़कते होठ निरंत्तर,
भ्रमण कर रही रति, मानो इस जगतीतल पर।
शैल नितम्बी अलसाये डग, पगपग बढ़ती,
या कि भुवन चौदह की, शोभा भव्य, सिमटती॥
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